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Description
Happy to tell you about life in practical ways important book, it is. There are 21 chapters and each chapter can add a new colour to your life. These colours are unique and not new, but you wake them in concrete and effective ways. These are so precise, agile and tested. Walking on these paths of course will enable you to live a happy life.
Sujets
Informations
Publié par | V & S Publishers |
Date de parution | 01 juillet 2011 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789352151073 |
Langue | Hindi |
Informations légales : prix de location à la page 0,0500€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
चुन्नीलाल सलूजा
प्रकाशक
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© कॉपीराइट: वी एण्ड एस पब्लिशर्स ISBN 978-93-814486-7-0
डिस्क्लिमर
इस पुस्तक में सटीक समय पर जानकारी उपलब्ध कराने का हर संभव प्रयास किया गया है। पुस्तक में संभावित त्रुटियों के लिए लेखक और प्रकाशक किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं होंगे। पुस्तक में प्रदान की गई पाठ्य सामग्रियों की व्यापकता या संपूर्णता के लिए लेखक या प्रकाशक किसी प्रकार की वारंटी नहीं देते हैं।
पुस्तक में प्रदान की गई सभी सामग्रियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन के तहत सरल बनाया गया है। किसी भी प्रकार के उदाहरण या अतिरिक्त जानकारी के स्रोतों के रूप में किसी संगठन या वेबसाइट के उल्लेखों का लेखक प्रकाशक समर्थन नहीं करता है। यह भी संभव है कि पुस्तक के प्रकाशन के दौरान उद्धत वेबसाइट हटा दी गई हो।
इस पुस्तक में उल्लीखित विशेषज्ञ की राय का उपयोग करने का परिणाम लेखक और प्रकाशक के नियंत्रण से हटाकर पाठक की परिस्थितियों और कारकों पर पूरी तरह निर्भर करेगा।
पुस्तक में दिए गए विचारों को आजमाने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से सलाह लेना आवश्यक है। पाठक पुस्तक को पढ़ने से उत्पन्न कारकों के लिए पाठक स्वयं पूर्ण रूप से जिम्मेदार समझा जाएगा।
मुद्रक: परम ऑफसेटर्स, ओखला, नयी दिल्ली-110020
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महान् कथन....!
जीवन नाम चलने का है।
—जैनेंद्र कुमार
जीना केवल सत्य साधना के लिए, मरना भी बस सत्य दृष्टि के लिए। निज समाज की सीख मनोहर दो यही, आए हम सब सत्य दृष्टि ही के लिए।
—गिरिजादत्त शुक्ल
जिंदगी एक कसौटी है। ईश्वर उस पर हमें कस लेता है। नेक काम करके हम कसौटी पर खरे उतरते हैं, तो भगवान् की सच्ची भक्ति करते हैं।
—विनोबा भावे
अहमियत इस बात की नहीं कि हम कितने दिन जिएं, बल्कि इसकी है कि कैसे जिएं।
—बेली
उत्तम कर्म से मनुष्य एक मुहूर्त भी जीवित रहे, तो वह अच्छा है।
—चाणक्य
जिसके जीवित रहने से विद्वान् मित्र और बंधु-बांधव जीते हैं, उसी का जीना सार्थक है।
—हितोपदेश
जीवन का रहस्य भोग में नहीं है, अपितु अनुभव के द्वारा शिक्षा प्राप्ति में है।
—विवेकानंद
जब तक जीवित हो, तब तक जीवन-कला सीखते हो।
—सेनेका
अपनी बात___________________________
मा नवता व्यक्ति को श्रेष्ठता प्रदान करती है। वह यदि मानवीय गुणों का पालन न करे, तो स्वयं पर लज्जित तो होता ही है, जीवन की खुशहाली से भी वंचित रह जाता है। आचरण से गिरने पर सामाजिक उपेक्षा उसमें आत्मग्लानि और हीनता की भावना पैदा करती है और वह पश्चात्ताप करने पर विवश होता है। इस असफलता, अपयश, आत्मग्लानि और पश्चात्ताप से बचने का एक मात्र उपाय है व्यक्ति अपने व्यवहार का विश्लेषण करे, अपनी गलतियों तथा बुराइयों को पहचाने और उनकी छाप अपने व्यक्तित्व पर किसी भी तरह न पड़ने दे। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने विवेक को जाग्रत करे और चिंतनशील बने।
परिस्थितियां हमारे ही कार्यों का फल हैं। इन्हें कर्म द्वारा बदला या सुधारा जा सकता है। इसलिए मनुष्य को परिस्थितियों का दास बनकर नहीं जीना चाहिए, बल्कि परिस्थितियों को अपने अनुरुप बनाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। विवेकपूर्ण चिंतन, व्यावहारिक सोच और कठिन परिश्रम ही वे माध्यम हैं, जो मनुष्य की प्रगति, सफलता और खुशहाल जीवन जीने में सहायक होते हैं।
मनुष्य सद्गुणों की वास्तविकता से परिचित होता है, किंतु लापरवाही में इसे जीवन में उतार नहीं पाता। वह जो कहता है, उसे कर नहीं पाता। कथनी और करनी का यह अंतर ही असफलताओं का प्रमुख कारण है। इसीलिए व्यक्ति मानसिक तनावों का शिकार होता है और भटक कर ‘कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूंढ़े वन मांहि' की स्थिति में पहुंच जाता है।
आपके अंदर इच्छा है, साहस है, आत्मविश्वास है, किंतु सही रास्ता न मिल पाने के कारण ये शक्तियां या तो कुंठित हो रही हैं या विध्वंसक कार्यों की ओर बढ़ रही हैं। यदि इनका सदुपयोग हो जाए, तो आपकी निराशाएं सफलताओं में बदल सकती हैं, आपका घर खुशियों की चहचहाहट से भर सकता है, आप अपने और अपने परिवार के सफल निर्माता बन सकते हैं, अपने व्यवहार से समाज को दिशा दे सकते हैं।
आपके खुशहाल जीवन की व्यावहारिक सफलता की इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही यह पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक की सामग्री आपके व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं को सुलझाने में और आपके लिए सफलता के नए द्वार खोलने में सहायक होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
—चुन्नीलाल सलूजा
वास्तव में खुशहाल जीवन में नए-नए रंगों, आदर्शों की कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। मनुष्य स्वयं ही अपने परिवार और सफलताओं के रंग इसमें भरता है। उसकी सफलताएं ही उसे सौभाग्य प्रदान करती हैं और वह अपने-आप को ईश्वर की श्रेष्ठ कृति कहलाने योग्य बनाता है। उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से ही वह जीवन में महान और सफल बनता है। व्यावहारिक जीवन के विविध पक्ष खुशहाली के ही रहस्य हैं। इसे अपने जीवन से उतारना कोई कठिन कार्य नहीं।
—लेखक की कलम से...
अंदर के पृष्ठों में_____________________
जीवन में रंग भरने की सोच
परिवार से जुडें
परिवार में आपका महत्त्व
अप्रिय प्रसंगों और हादसों को भूलें
गलतियों को न दोहराएं
परिचय क्षेत्र बढ़ाएं
अलग पहचान बनाएं
समझौतावादी सोच पालें
मानसिक सोच को व्यापक बनाएं
खुश रहें-खुशियां बांटें
आकर्षक व्यक्तित्व
दिल खोलकर हंसें
दांपत्य जीवन को सरस बनाएं
सफलता के लिए श्रम केरें
आत्मघाती सोच-भावुकता
कॉकटेल पार्टियों का अर्द्धसत्य
हमेशा कुछ नया करने की सोच पालें
अवैध संबंधों की मृगतृष्णा से बचें
सकारात्मक सोच पालें
सत्य का साथ पकड़ें
जीने की कला जानें
जीवन में रंग भरने की सोच
• चिंतनशील बनें।
• अपने व्यक्तित्व में सद्गुणों का विकास करें।
• स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दें।
ज हां भी दो-चार व्यक्ति बैठते हैं, बातचीत घूम-फिरकर आज की सामाजिक अव्यवस्था और नैतिक मूल्यों के ह्रास पर आकर ठहर जाती है। इस अव्यवस्था के लिए कोई सरकार को कोसता है, तो कोई युवा पीढ़ी को, कोई सिनेमा को, तो कोई टी.वी. को। कुछ पढ़े-लिखे लोग जहां इसके लिए शिक्षा प्रणाली को दोषी मानते हैं, वहीं कुछ इसे पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं। वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर यदि हम एक दृष्टि डालें, तो अपराधों का बढ़ता ग्राफ और मानव मूल्यों में आई गिरावट से यह स्पष्ट हो जाएगा कि दोष चाहे जिसका भी हो, लेकिन इतना अवश्य है कि आधुनिकता के इस दौर में जितना अधिक भौतिक विकास हुआ है, उतना ही अधिक नैतिक ह्रास भी हुआ है। भौतिक विकास के क्षेत्र में एक ओर जहां अच्छे-अच्छे बगंले, कोठियां, भवन, फार्म-हाउस, आलीशान होटल बने हैं, वस्त्रों का निर्माण हुआ है, स्वाद के लिए विविध प्रकार के भोज्य-पदार्थों को सजाया-संवारा गया है, टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल फोन, मोटरकारों आदि के निर्माण से आदमी से आदमी के बीच की दूरी कम हुई है, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिकता की दृष्टि से मन की सुख-शांति दूर होती जा रही है। ढेर सारी सुख-सुविधाओं के बाद भी हमारा जीवन अव्यवस्थाओं से घिरता जा रहा है। देर से सोना, नींद के लिए करवटें बदलते रहना, शराब या अन्य नशीले पदार्थ जैसे 'काम्पोज' आदि नींद की गोलियां खाकर सोना और नशे की खुमारी से सुबह देर तक सोते रहना अनेक सभ्य लोगों की जीवनशैली बनती जा रही है।
मुझे याद है, स्कूल-जीवन में डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक लेख पढ़ा था, जिसमें जीवन में आ गई इस प्रकार की असंगति और असंतुलन का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा था, "ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलाने वाले निरीह और भोले-भाले श्रमजीवी पिस रहे हैं। झूठ और फरेब का रोजगार करने वाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदारी को मुर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है।"
यह कैसी प्रगति है: द्विवेदी जी ने जिस असंगति की ओर संकेत किया है, वह आज हमारे चरित्र का हिस्सा बन गई है। कमाल तो यह है कि इस गलती को हम गर्व के साथ प्रगति समझ बैठे हैं। यह कैसी प्रगति है कि एक ओर ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझे जाने की बात कही जाती है, तो दूसरी ओर प्रगतिशील समाज भौतिकता के प्रभाव में आकर दो घड़ी सुख की नींद के लिए तरस रहा है। यह कैसी प्रगति है कि निराशा और असुरक्षा में घड़ी के पैंडुलम की तरह लटकता मानव-मन कहीं भी स्थिर नहीं हो पा रहा है। यह कैसी प्रगति है कि अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार और असुरक्षा के घुमड़ते बादलों में आज़ मनुष्य की अस्मिता दिन-ब-दीन असुरक्षित होती जा रही है। लेकिन खुशी की बात है कि भौतिकता की इस चकाचौंध में भ्रष्ट आचरण को कहीं भी सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। देश के राष्ट्रीय चरित्र और लोकमत की उपेक्षा करने का दुस्साहस आज़ भी कोई नहीं जुटा पाता है। गले गले तक भ्रष्टाचार में डूबा व्यक्ति भी सार्वजनिक जीवन में अपने-आप को पाक-साफ समझता है। उसकी दृष्टि हमेशा अपने से बड़े भ्रष्टाचारी पर लगी रहती है।
परिणाम हमारे सामने है। इस तथाकथित प्रगति के फलस्वरूप लोगों की तो लालसाएं, आकांक्षाएं, महत्त्वाकांक्षाएं बढ़ रही हैं, सामाजिक और आधुनिक जीवन में दूर-दूर तक इनका कहीं कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा है। इच्छाएं इस सीमा तक बढ़ रही हैं कि उनकी पूर्ति होना असंभव-सा होता जा रहा है। ये अनन्त इच्छाएं और अपेक्षाएं इस अव्यवस्था का ही परिणाम हैं, और यही आज हमारे सामाजिक जीवन की सबसे बड़ी समस्या है। समस्या इसलिए कि जिस गति से इच्छाएं बड़ी हैं, उसी गति से सहिष्णुता और सामंजस्य की कमी हुई है। घर हो अथवा ऑफिस, कक्षा हो अथवा व्यापारिक संस्थान, जहां व्यक्तियों में परस्पर स्नेह और आत्मीयता होनी चाहिए थी, वहां अविश्वास की भावनाएं बढ़ी हैं। पति-पत्नी, बाप-बेटे, माँ-बेटी, भाई-भाई में परस्पर स्नेह-स्त्रोत सूख रहे हैं, दूरियां बढ़ रही हैं। परिवार का वातावरण तना- तना-सा, खिंचा-खिंचा-सा बना रहता है। यही तनाव अब घरों से निकल कर समाज में आ गया है। इसलिए व्यक्ति को न घर में शांति है न बाहर। होगी भी कैसे? व्यक्ति जब घर में ही अशांत रहता हो, तो वह बाहर सामान्य कैसे हो पाएगा? आखिर समाज भी तो एक बड़ा घर है।
ईर्ष्या छोड़ें, आत्मचिंतन करें: दरअसल, यह मानसिक अशांति दूसरों की देन नहीं, अपितु व्यक्ति की अपनी सोच की ही देन है। हम दुखी अथवा अशांत इसलिए नहीं हैं