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Description
Informations
Publié par | Diamond Books |
Date de parution | 10 septembre 2020 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789390088775 |
Langue | English |
Informations légales : prix de location à la page 0,0108€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
जय शंकर प्रसाद
(कविता संग्रह)
महाराणा का महत्त्व
eISBN: 978-93-9008-877-5
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
Jaishankar Prasad Kavita Sangrah : Maharana Ka Mahattv
By - Jaishankar Prasad
कविवर जयशंकर प्रसाद का काव्य साहित्य प्रारम्भिक रचनाओं से ‘कामायनी' के शिखर तक. अपने समय की साहित्यिक उपलब्ध रहा है तो भावी पीढ़ी के लिए अनुकरण का सात और गम्भीर रचना की प्रेरणा। उनकी मुख्य रचनाओं में ‘झरना', ‘आंसू', ‘लहर' और ‘कामायनी' तो अधिक चर्चित रही ही हैं प्रारम्भिक रचनाएं भी उस काल के काव्य-शैशव और उसके सौष्ठव की अभिव्यक्ति करती हैं।
‘झरना में भाव और प्रकृति एक-दूसरे से संश्लिष्ट होकर भाव संसार की रचना करत है तो 'आंसू' में प्रकृति का एक-एक बिम्ब मनुष्य की पीड़ा उभारता है। ‘लहर' में प्रकृति राग-विराग के चित्रों के साथ मनुष्य के चिंतन पक्ष से साक्षात्कार कराती है, और ‘कामायनी' तो भारतीय मनीषा की विचारधारा की अद्भुत रचना है।
‘कामायनी' के मनु श्रद्धा और इड़ा तथा मानव, मानव जीवन के विकास के सोपान है तथा उसकी अंतरधर्मिता के प्रतीक भी।
आधुनिक साहित्य में कवि जयशंकर प्रसाद अभी तक अद्वितीय है और निकट भविष्य में इस तरह की रचनाधर्मिता की आशा भी उन्हीं की परम्परा में हो सकती है ।
प्रसाद जी के काव्यों में परम्परा और नवीन भावबोध का अभिनव सम्मिश्रण है।
महाराणा का महत्त्व
“क्यों जी कितनी दूर अभी वह दुर्ग है?”
शिविका में से मधुर शब्द यह सुन पड़ा।
दासी ने उन सैनिक लोगों से यही
‒यथा प्रतिध्वनि दुहराती है शब्द को‒
प्रश्न किया जो साथ-साथ थे चल रहे।
कानन में पतझड़ भी कैसा फैल के
भीषण निज आतंक दिखाता था, कड़े
सूखे पत्तों के ही ‘खड़-खड़’ शब्द से
अपना कुत्सित क्रोध प्रकट था कर रहा।
प्रबल प्रभंजन वेगपूर्ण था चल रहा
हरे-हरे द्रुमनल को खूब लथेड़ता
घूम रहा था, क्रूर सदृश उस भूमि में।
जैसी हरियाली थी वैसी ही वहां‒
सूखे कांटे पत्ते बिखरे ढेर-से
बड़े मनुष्यों के पैरों से दीन-सम
जो कुचले जाते थे, हय-पद-वज्र से।
धूल उड़ रही थी, जो घुसकर आंख में
पथ न देखने देती सैनिक वृन्द को,
जिन वृक्षों में डाली ही अवशिष्ट थी
अपहृत था सर्वस्व यहां तक, पत्र भी‒
एक न थे उनमें, कुसुमों की क्या कथा!
नव वसंत का आगम था बतला रहा
उनका ऐसा रूप, जगत-गति है यही।
पूर्ण प्रकृति की पूर्ण नीति है क्या भली,
अवनति को जो सहन करे गंभीर हो
धूल सदृश भी नीच चढ़े सिर तो नहीं
जो होता उद्विग्न, उसे ही समय में
उस रज-कण को शीतल करने का अहो
मिलता बल है, छाया भी देता वही।
निज पराग को मिश्रित कर उनमें कभी
कर देता है उन्हें सुगंधित मृदुल भी।
देव दिवाकर भी असह्य थे हो रहे
यह छोटा-सा झुंड सहन कर ताप को,
बढ़ता ही जाता है अपने मार्ग में।
शिविका को घेरे थे वे सैनिक सभी
जो गिनती में शत थे, प्रण में वीर थे।
मुगल चमूपति के अनुचर थे साथ में
रक्षा करते थे स्वामी के ‘हरम’